दादा साहेब फाल्के को जहां भारतीय सिनेमा का जनक माना जाता है वहीं अर्देशिर ईरानी 14 मार्च 1931 को पहली बोलती हुई भारतीय फिल्म ‘आलम आरा’ की रिलीज के साथ टॉकी फिल्मों के पिता बन गए। इतना ही नहीं, उन्होंने भारत की पहली रंगीन फीचर फिल्म ‘किसान कन्या’ भी साल 1937 में बनाई।
उनका योगदान केवल मूक सिनेमा को आवाज देने और श्वेत-श्याम फिल्मों को रंग देने तक ही सीमित नहीं है, उन्होंने भारत में फिल्म निर्माण के लिए एक नया साहसी दृष्टिकोण दिया और फिल्मों में कहानियों के लिए इतनी विस्तृत पसंद प्रदान की, कि आज तक ऐसी फिल्में बन रही हैं। 5 दिसंबर 1886 को महाराष्ट्र के पुणे में एक पारसी पारसी परिवार में जन्मे अर्देशिर ईरानी के जन्मदिन पर आइए जानते हैं उनसे जुड़ी कुछ दिलचस्प किस्से..
लीक से हटकर बनाई फिल्म
‘आलम आरा’ से पहले भारत में मूक फिल्मों का निर्माण होता था। जो पौराणिक कहानियों के इर्द गिर्द होती थी। अर्देशिर ईरानी ने उस समय लीक से अलग एक लोकप्रिय नाटक को चुनकर बड़ा जोखिम उठाया। उन्होंने ‘आलम आरा’ में हिंदी और उर्दू का मिश्रण रखा। इसके पीछे उनकी यह सोच थी कि फिल्म बड़े स्तर पर दर्शको तक पहुंचेगी।
‘आलम आरा’ जोसेफ डेविड द्वारा लिखित पारसी नाटक का रूपांतरण थी। जिसकी कहानी एक राजकुमार और एक बंजारन की प्रेम कहानी के इर्द गिर्द घूमती है। फिल्म में मास्टर विट्ठल और जुबैदा ने केंद्रीय भूमिका निभाई थी और पृथ्वीराज कपूर ने इस फिल्म में विलेन का किरदार निभाया था।
मोहम्मद अली जिन्ना को लड़ना पड़ा केस
‘आलम आरा’ के लिए हीरो का चुनाव करना अर्देशिर ईरानी के लिए आसान नहीं था। वह फिल्म के हीरो के रूप में महबूब खान को लेना चाह रहे थे। महबूब खान जो बाद में मदर इंडिया के निर्देशक बने। मास्टर विट्ठल का उन दिनों शारदा स्टूडियो के साथ अनुबंध था।
लेकिन, उन्होंने पहली बोलती ऐतिहासिक फिल्म का हिस्सा बनने के लिए शारदा स्टूडियो के साथ अपना अनुबंध रद्द कर दिया। शारदा स्टूडियो ने उनके खिलाफ केस कर दिया और मास्टर विट्ठल ने बैरिस्टर मोहम्मद अली जिन्ना से मदद मांगी। जिन्ना केस जीत गए और भारत की पहली बोलती फिल्म ‘आलम आरा’ 14 मार्च 1931 को रिलीज हुई।
लाटरी में जीते पैसे से कारोबार का विस्तार
फिल्मों में कदम रखने से पहले अर्देशिर ईरानी टीचर थे। बाद में उन्होंने केरोसिन इंस्पेक्टर के रूप में भी काम किया। इसके बाद नौकरी छोड़कर पिता के वाद्य यंत्र पोनोग्राफ के बिजनेस में हाथ बटाने लगे। साल 1903 में उन्होंने 14 हजार रुपये की लॉटरी जीती।
इस जीती धनराशि से उन्होंने टेंट सिनेमा घरों में प्रोजेक्टर से फिल्में दिखाने के लिए फिल्म वितरक बनने का फैसला किया और यहीं से उनकी फिल्म मेकिंग में दिलचस्पी हुई। साल 1917 में आर्देशिर ईरानी ने फिल्म निर्माण के क्षेत्र में कदम रखा और पहली मूक फीचर फिल्म ‘नल दमयंती’ का निर्माण किया जो साल 1920 में रिलीज हुई।
पहली हीरोइन लाने का श्रेय
दादा साहेब फाल्के की हिंदुस्तान फिल्म्स के पूर्व प्रबंधक भोगी लाल देव के साथ मिलकर अर्देशिर ईरानी ने साल 1922 में स्टार फिल्म्स की स्थापना की और इस कंपनी से उन्होंने मूक फिल्म ‘वीर अभिमन्यु’ का निर्माण किया। इसमें मुख्य भूमिका में फातिमा बेगम थी। उस दौर में पुरुषों के लिए नाटकों और फिल्मों में महिलाओं की भूमिका निभाना आम बात थी, ऐसे में जब फातिमा ने फिल्मों में कदम रखा तो वह बड़ी महिला सुपरस्टार बन गई।
साल 1926 में फातिमा बेगम ने खुद फातमा फिल्म्स की स्थापना की और कई फिल्मों का निर्माण और निर्देशन किया। इधर भोगीलाल दवे के साथ ईरानी की साझेदारी ज्यादा दिन तक नहीं चली और उन्होंने साल 1924 में मैजेस्टिक फिल्म्स की स्थापना नवल गांधी और बीपी मिश्रा के साथ की। बाद में जब यह कंपनी बंद हुई तो आर्देशिर ईरानी ने 1925 में इंपीरियल फिल्म्स की स्थापना की। ‘आलम आरा’ का निर्माण उन्होंने इसी कंपनी के बैनर तले किया।
अमेरिकन फिल्म से मिली प्रेरणा
‘आलम आरा’ को बनाने की प्रेरणा अर्देशिर ईरानी को साल 1929 में अमेरिकन फिल्म ‘शो बोट’ देखने से मिली थी। हालांकि यह पूरी तरह से बोलने वाली फिल्म नहीं थी, लेकिन इस फिल्म ने अर्देशिर ईरानी को भारतीय भाषा में बोलती फिल्म बनाने के लिए प्रेरित किया। फिल्म के साथ साथ फिल्म का संगीत भी खूब सफल रहा।
फिल्म का गीत ‘दे दे खुदा के नाम पर’ भारतीय सिनेमा का पहला गीत था,जिसे वजीर खान ने गाया था और उन्होंने खुद फिल्म में फकीर का किरदार भी निभाया था। उस समय फिल्मों में पार्श्व गायक शुरू नहीं हुआ था इसलिए इस गीत को हारमोनियम और तबले के संगीत की संगत के साथ लाइव रिकॉर्ड किया गया था।
नए प्रयोग के लिए आलोचना भी हुई
सिनेमा के साथ आर्देशिर ईरानी हमेशा कुछ ना कुछ नया प्रयोग करते रहते थे। उन्होंने जब ‘कालिदास’ का निर्माण किया तो फिल्म के संवाद तमिल में और गीत तेलुगू में रखे। इसके लिए उनकी काफी आलोचना हुई लेकिन अर्देशिर ईरानी का मानना था कि तेलुगू भाषा संस्कृत के काफी नजदीक है और गीतों में यदि तेलुगू का इस्तेमाल किया जाए तो कालिदास के भाव को सही तरीके से अभिव्यक्त किया जा सकता है। फिल्म के प्रदर्शन के बाद आर्देशिर ईरानी का प्रयोग सफल रहा और फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सफल रही।
सबसे पहले भारतीय अंग्रेजी फिल्म बनाई
ईरानी ने ‘आलम आरा’ की सफलता के बाद साल 1945 तक फिल्में बनाई। ईरानी ने तीन दशक से ज्यादा तक फिल्मों का निर्माण किया। उन्होंने अपने करियर में 250 फिल्में बनाई हैं जिसमें से 150 फिल्में मूक फिल्में थी। हिंदी के अलावा ईरानी ने गुजराती, मराठी, तमिल, तेलुगू, बर्मी, फारसी और अंग्रेजी भाषा में फिल्में बनाई है। ईरानी ने ही सबसे पहले भारतीय अंग्रेजी फिल्म साल 1931 में ‘नूरजहां’ बनाई थी।
साल 1938 में अर्देशिर ईरानी ने इंडियन मोशन फिल्म्स प्रोड्यूसर एसोसिएशन की स्थापना की और वह इसके अध्यक्ष बने। इस बीच ब्रिटिश सरकार ने फिल्मों में उनके महत्वपूर्ण योगदान के लिए उन्हें ‘खान बहादुर’ के खिताब से सम्मानित किया गया। साल 1945 में प्रदर्शित फिल्म ‘पुजारी’ उनके करियर की अंतिम फिल्म थी। 14 अक्तूबर 1969 में 82 की उम्र में उनका निधन हो गया।