Maharashtra Political Crisis:
महाराष्ट्र से लेकर असम तक सियासी ड्रामा लगातार पांचवे दिन आज भी जारी है. ऐसे में सवाल उठ रहा है कि क्या एकनाथ शिंदे उद्धव को सत्ता से बेदखल करने से साथ ही पार्टी से भी बेदखल कर देंगे. महाराष्ट्र में मचे सियासी घमासान का आज पांचवा दिन है. सत्ता संघर्ष की यह लड़ाई कहां जाकर रुकेगी यह कहना अभी संभव नहीं है लेकिन एकनाथ शिंदे के नेतृत्व में शिवसेना के बागी गुट जिस तरह से आक्रामक रुख अख्तियार किए हुए हैं उसे देखकर लगता है यह लड़ाई महज सत्ता परिवर्तन की नहीं बल्कि शिवसेना पर कब्जा करने की भी है. वर्तमान हालात यह बताते है कि शिंदे गुट और उद्धव ठाकरे गुट की आपसी लड़ाई अब कानूनी भी होने वाली है. यानी अब मामला चुनाव आयोग और कोर्ट तक भी जा सकता है. ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि क्या एकनाथ शिंदे के लिए शिवसेना पर कब्जा करना आसान है
असली शिवसेना किसकी है
एकनाथ शिंदे गुट के 37 विधायकों ने राज्यपाल और डिप्टी स्पीकर को पत्र भेजा है जिसमें एकनाथ शिंदे को शिवसेना का विधायक दल का नेता बताया गया है. वहीं उद्धव ठाकरे की सिफारिश पर डिप्टी स्पीकर ने अजय चौधरी को शिवसेना विधायक दल का नेता के रुप में मान्यता दी है. अब सवाल उठता है असली शिवसेना किसकी है. असली शिवसेना उसी की मानी जाएगी जिसके पास पार्टी का चुनाव चिन्ह ‘तीर कमान’ होगा.
एकनाथ शिंदे के लिए आसान नहीं है शिवसेना पर कब्जा करना
एकनाथ शिंदे के लिए उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली शिवसेना पर कब्जा करना इतना आसान नहीं होगा. इसके लिए शिंदे को सिर्फ विधायकों और सांसदों का ही नहीं बल्कि पार्टी के ज्यादातर पदाधिकारियों का भी समर्थन हासिल करना होगा. शिवसेना के चुनाव चिन्ह ‘तीर कमान’ पर कब्जा करने के लिए एकनाथ शिंदे को पार्टी के आधे से ज्यादा लोकसभा सांसद, राज्यसभा सांसद, एमएलसी, पार्षद, मेयर, डिप्टी मेयर और जिलों के पदाधिकारियों का समर्थन हासिल करना होगा. जोकि इतना आसान नहीं है. बागी गुटों की तरफ से किए जा रहे दावे के अनुसार, 40 विधायकों के अलावा कुछ सांसदों और ठाणे जिले के करीब 40 पार्षद ही शिंदे के संपर्क में हैं. यानी इसके लिए अभी शिंदे को लंबा सफर तय करना होगा.
विधानसभा में दलबदल कानून
बता दें कि जब किसी पार्टी में विवाद होता है या सिंबल को लेकर लड़ाई शुरू होती है तो विधानसभा में स्पीकर और चुनाव आयोग ही इस पर फैसला दे सकता है. विधानसभा में दलबदल कानून के तहत बागियों की सदस्यता जाने का भी खतरा रहता है. जब विधानसभा सत्र नहीं चल रहा होता है तब चुनाव आयोग फैसला करता है कि आखिर पार्टी का सिंबल किसे दिया जाए. चुनाव आयोग के फैसले से नाराज दूसरा पक्ष कोर्ट में भी चुनौती दे सकता है